Thursday, October 15, 2009

सार्त्र के नोबल पुरस्कार ठुकरा देने पर.........."हरिवंश राय बच्चन"



सवयस्क,

समानवर्मा,

और मेरी घृष्टता यदि हो क्षमा,

कुछ अंश में

समदृष्टि तुमको और अपने को

हृदय से मानता मैं;

सुन इसे कुछ मित्र

शत्रु मेरे

आज चौंकेंगे,

कहाँ अस्तित्ववादी, कहाँ बच्चन !

कहाँ नास्तिक, बुद्धिवादी, अविश्वासी,

कहाँ आस्तिक और भावातिशयवादी

और कुछ अस्पष्ट, कुछ अज्ञात,

कुछ अव्यक्त का विश्वास-कर्ता !

भ्रांतियां हैं विविध दोनों के विषय में

रहें, तेरा और मेरा क्या बिगड़ता

बीज है अस्तित्व का व्यक्तित्व

जिसके गीत मैंने

कम नहीं गाये, सुनाये

व्यक्ति की अनुभूति के,

अधिकार के,

उन्मुक्ति के,

स्वातंत्र्य के,

दायित्व के भी,

व्यक्ति है यदि नहीं निर्जन का निवासी।

अनृत, मिथ्या, रूढ़ि, रीति, प्रथा, व्यवस्था

नीति, मृत आदर्श के प्रति अविश्वासी,

पूर्ण,

बन मैं भी चला था;

किंतु देखा इसे मैंने,

अविश्वासी को नहीं आधार अंतिम प्राप्त होता।

एक दिन मैं

अविश्वासों प्रति अविश्वासी बना था

वृत पूरा हो गया था,

छोर ने मुड़कर सिरे को छू लिया था,

जिस तरह से पूँछ ने फन,

इस तरह विश्वास की

अव्यक्त कुछ, अज्ञात कुछ,

एक दिन देखा इसे भी,

अंततः जो हूँ

तथा जो सोचता हूँ,

बोलता हूँ, कर रहा हूँ,

प्रकृति अपनी वर्तता हूँ

भाव भव का भोगता हूँ

बुद्धि तो केवल दुहाई दे रही है,

सिद्ध करती इन सबों को

तथ्य-संगत, तर्क-संगत, न्याय-संगत !

और ये सब हैं अपेक्षाकृत असंगत।

फ़र्क तुझमें और मुझमें सिर्फ़ इतना।

व्यक्ति मेरे लिये भी अंतिम इकाई,

और उसके सामने संसार सारा,

धर्म, रूढ़ समाज, शासन-तंत्र सारा,

प्रकृति सारी, नियति सारी,

देश सारा, काल सारा,

और उसको

एक, बस अस्तित्व अपने, सहारा;

गो मुझे आभास होता है

कि अपने में

कहीं पर और का भी है पसारा;

किंतु, यदि हो भी न तो भी

व्यक्ति मेरा नहीं हरा !!

व्यक्ति मेरा नहीं हारा !!

कौन उससे जो न जा सकता प्रचारा?

(और उसमें सम्मिलित है और ऊपर का हमारा)

उसी की शत्रु बन

उसको दमित, कुष्ठित, पराजित,

दलित करने की गरज से

शक्तियाँ जो पश्चिमी जग में उठी थीं,

क्रूर तानाशाहियत की

और दुर्दम, भेदपूर्ण समूहशाही,

बन्धु, उनके सामने डटकर अकेले

मोर्चा तूने लिया था,

शस्त्र सबसे सबल,

सबसे स्वल्प लेकर लेखनी का!

और तुझसे पा सुरक्षा-आश्वासन

पश्चिमी संसार का पूरब व पश्चिम

हुआ था तुझ पर निछावर,

विनत प्रतिभापूर्ण तेरे युग चरण पर।

और पेरिस-मास्को ने

तुझे गुलदस्ते दिये थे,

किंतु लेने से किया इंकार तूने,

क्योंकि निज-निज स्वार्थ का

आरोप दोनों,

सार्त्र, तुझ पर कर रहे थे।

बात यह थी-

व्यष्टि की लेकर इकाई

था उसे तूने बड़ा व्यापक बनाया,

किंतु उसकी एक सीमा भी बनायी,

जिस जगह पर पा समिष्ट

बने दहाई वह इकाई-

हो भले ही मूल्य शून्य

समष्टि का तेरी नज़र में-

गो मुझे आभास होता है

कि मेरा व्यष्टि केवल शून्य,

उसका मूल्य लगता है

उसे मिल जाये जब

अस्पष्ट की, अज्ञात की,

अव्यक्त सत्ता की दहाई !

(शून्य, जिससे मूल्य बढ़ता

कम नहीं उसकी महत्ता)

द्रविड़ प्राणायाम है यह

गणित अंकों का विनोदी,

वस्तुतः व्यवहार में हम

एक ही कुछ कर रहे हैं,

फार्मूलों में कभी बँधता न जीवन,

शब्द-संख्या फार्मूले ही नहीं तो और क्या हैं?

तथ्य केवल,

व्यष्टि करके मुख्यता भी प्राप्त

अपने आप में सब कुछ नहीं है !

पूर्व को स्वाधीनता है

व्याख्या अपनी उसे दे

और पश्चिम को यही स्वाधीनता है।

देख, लेकिन,

क्या हुआ परिणाम उसका

युग-शिविर में?

पूर्व-पश्चिम

शून्य-कन्दुक-दशमलव का

व्यष्टि केतेरी प्रतिष्ठित जो इकाई--

कभी आगे, कभी पीछे फैंकते हैं

और अचरज-चकित

उनको देखता तू

और तुझको देखते वे।

सिद्ध प्रतिभा तो वही है

सामने जिसके निखिल संसार

मुँह बाये खड़ा हो !

जब तुझे आकर्ष

सम्मान और स्नेह

जनता का मिला था,

क्या ज़रूरत थी तुझे, तू

विश्वविद्यालयी

या कि अकादमीवी

या कि सरकारी

समादर, पुरस्कार, उपाधि की

परवाह करता।

वे रहे आते, लुभाते तुझे,

पर दुत्कातरता उनको रहा तू।

विश्वविद्यालय बँधे हैं

विगत मूल्य परम्परा में--

तू रहा जिनका विरोधी--

और अब तो बिक रहे वे,

राजनीति खरीदती है।

आज उनकी डिग्रियाँ-आनरिस-काजा---

योग्यता के लिये

प्रतिभावान को अर्पित न होती,

कूटनीतिक कारणों से

दी, दिलायी और पायी जा रही है।

अकादमियाँ

समय जर्जरित, जड़-हठ-हूश,

दकियानूस,

सिद्धांतों-विचारों के जठर अड्डे रही हैं,

और अब वे

स्वार्थ-साधक, चालबाज़, प्रचारकामी

क्षुद्रताओं की बड़ी दुर्भेद्य गढियाँ,

और उनके प्रति सदा

विद्रोह तू करता रहा है,

और उनकी भर्त्सना भी।

और सरकारें कभी होती नहीं

पाबन्द

सच की, न्याय, नैतिकता, उचित की;

उचित-अनुचित,

जो बनाये रहे उनकी अडिग सत्ता,

बे-हिचक, बे-झिझक है करणीय उनको।

शक्ति-साधन आज वे सम्पन्न इतनी,

कौन निर्णय है जिसे वे

निबल व्यष्टि, समष्टि सिर पर

लाद या लदवा न सकती?---

कहीं तो वे

उठाईगीर, चोरों औ उचक्कों के करों के

सूत की कठपुतलियाँ हैं,

जो कि अपने मौसियाउर भाइयों को,

या भतीजे, भानजों को,

चाहती जो भी दिलातीं,

चाहती जितना उठाती,

चाहती जिस पद सिंहासन पर बिठातीं;

डोरियाँ वे, किंतु प्रतिभा की कलम को

नाचया नचवा न पाती।

ओसलो की

एक संस्था थी,

अगर निष्पक्षता की

आन वह अपनी निभाती,

मान कर तेरा स्वयं हो मान्य जाती;

किंतु अब वह

युग-विकृति-वश

पक्ष्धर शासन व्यवस्था की

शिकार बनी हुई है;----

नाम पास्तरनाक का बरबस मुझे हो याद आया।

आज उसने मान देने का

तुझे निर्णय किया है,

और तूने मान वह ठुकरा दिया है,

और इस पर कुछ नहीं अचरज मुझे है।

सार्त्र,

उसके मान का यदि पात्र तू था,

आज से बारह बरस पहले

नहीं क्या बन चुका था?

उस समय

यूरोप में था मैं;

वहाँ के बुद्धिजीवी दिग्गजों में

नाम तेरा श्रृंग पर था।

आज मैं यह सोचता,

बारह बरस तक

ओसलो सोता रहा क्यों?

और इस सम्मान से

वंचित तुझे रखता रहा क्यों?

और यह सम्मान

तुझसे बहुत छोटों को

समर्पित- भूल तेरा नाम-

ग्यारह साल तक करता रहा क्यों?

देखता क्या वह नहीं था

निज प्रतिष्ठित इकाई के

किस तरफ़ तू,

शून्य-कन्दक-दशमलव रखने लगा है,

वाम या दक्षिण तरफ़

संवेदना तेरी झुकी है,

किंतु तू स्थितप्रज्ञ-सा

कूटस्थ सा बैठा रहा है,

पूर्व-पश्चिम के लिये

बनकर समस्या,

हल न जिसका !

और अपनी भूल

अपनी हार,

अब स्वीकार कर वह

विवश होकर

मान यह देने चला है।

किंतु लेने के लिये अब देर ज़्यादा हो चुकी है।

संस्थाऐंहों भले ही विश्व-वन्दित---

यह नहीं अधिकार उनको---

क्योंकि उनके पास धन-बल--

जिस समय चाहें दिखायें मान-टुकड़ा,

और प्रतिभा दुम हिलाती

दौड़ उनके पाँव चाटे !

सार्त्र ने जिस व्यक्ति का आदर बढ़ाया,

शान के अनुरूप उसके यह नहीं

वह बेच डाले स्वाभिमान

खरीदने को मान,

उसका मूल्य कितना ही बड़ा हो

क्यों न जग में।

समय से सम्मान उसका

न करना, अपमान करने के बराबर,

और अवमानित हुई प्रतिभा

नहीं आपात-वृत्तिक मान से संतुष्ट होती।

सार्त्र को सम्मान देकर

स्थान देने का समय अब जा चुका है---

मान, या अपमान, या उसकी उपेक्षा,

इस समय पर

इंच भर ऊपर उठा सकता न उसको,

इंच भर नीचे गिरा सकती न उसको।

साठ के नज़दीक अब तू, और मैं भी;

इस उमर में पहुँच

जीवन-मान सारे बदल जाते,

मान औ अपमान खोते अर्थ अपना,

कर चुका अभिव्यक्ति तब व्यक्तित्व

सब सामर्थ्य अपना !

कल्पना में कर रहा हूँ,

किसी पेरिस की सड़क पर

किसी कैफ़े में,

अकेले,

हाथ टेके मेज़ पर, बैठा हुआ तू,

और तेरी उंगलियों में

एक सिगरेट जल रही है,

देखता निरपेक्ष तू

बाज़ार की रंगरेलियों को !

ख़बर आयी है कि तुझको

ओसलो का पुरस्कार दिया गया

साहित्य विषयक !

और अन्य मनस्कता से

झाड़कर सिगरेट

तूने सिर्फ़ इतना ही कहा है----

वह नहीं स्वीकार मुझको

मित्र, लेखक बन्धु, प्रेस-रिपोर्टर,

तुझको मनाने में सफल हो नहीं पाये जो,

निराश चले गये हैं,

और लेकर कार तू

है दूर जाता भीड़ से, अज्ञात पथ पर,

गीत शायद एक मेरा गुनगुनाता,

शब्द हों कुछ दूसरे पर

भाव तो निश्चय यही हैं,

जिन चीज़ों की चाह मुझे थी,

जिनकी कुछ परवाह मुझे थी,

दीं न समय से तूने, असमय क्या ले उन्हें करूँगा !

कुछ भी आज नहीं मैं लूँगा

और अब

संसार में तेरी प्रतिष्ठा

पुरस्कारभिषेकितों से बढ़ गयी है।

कलम की महनीयता

स्थापित हुई,

स्वाधीनता रक्षित हुई है

कलम को मिली ऊँचाई नयी है।

आयरिश कवि की किखी यह पंक्ति

स्मृति में कौंध जाती----

द किंग्स आर नेवर मोर रॉयल

दैन व्हेन एब्डिकेटिंग !

राजसी लगता अधिकतम

जबकि राजा

राजसिंहासन स्वयं ही त्याग देता !

जन या सज्जन बिठायें

उर-सिंहासन पर जिसे

उसके लिये कंचन सिंहासन धूल-मिट्टी।

जन समर्पित शब्द-शिल्पी के लिये

आसन उचित केवल वही,

केवल वही,

केवल वही है।

इसी को कुछ अन्य शब्दों में

हमारे पूज्य बाबा कह गये हैं----

बनै तो रघुपति से बनै

कै बिगड़े भरपूर,

तुलसी बनै जो आनतें

ता बनिबे पै धूर

और रघुपति कौन है?---

केवल वही है

जो कि है व्यक्तित्व की तेरे,

इकाई,

जो दहाई, सैंकड़े

सौ सैंकड़ों के सामने

अपनी इकाई मात्र के बल

खड़े होते,

कड़े होते,

थापते रुचिरक्ति अपनी

सबों को देते चुनौती,

आत्म सम्मान, आत्म रक्षा के लिये

करते सतत संघर्ष

लड़ते आत्मवानों की लड़ाई,

नभ-विचुम्भित हों भले ही,

हों भले ही धराशायी !

जयतु रघुराई, जयतु श्री राम रघुराई !!!!



धर्मयुग: 7 फ़रवरी 1964..........

Friday, August 28, 2009

शुरुआत.......

गजानन माधव "मुक्तिबोध" की इस कविता के साथ अपने blog की शुरुआत कर रहा हूँ...........

मैं बहुत दिनों से ,बहुत दिनों से
बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ-साथ यों साथ-साथ
फिर बहना बहना बहना
मेघों की आवाजों से
कुहरे की भाषाओँ से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से

मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना !
जैसे मैदानों को आसमान,
कुहरे की, मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ
रूप बदलकर, रंग बदलकर कहे..........

blog का नाम "तत् त्वम् असि...." सुझाने के लिये.. फ़रीद भाई का धन्यवाद.....

आपके सुझाव , सहयोग और आशिर्वाद अपेक्षित...........

सादर समर्पित
तत् त्वम् असि....